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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


घरजमाई--मुंशी प्रेमचंद

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हरिधन जेठ की दुपहरी में ऊख में पानी देकर आया और बाहर बैठा रहा। घर में से धुँआ उठता नज़र आता था। छन-छन की आवाज भी आ रही थी । उसके दोनो साले उसके बाद आये और घर में चले गये। दोनों सालों के लड़के भी आये और उसी तरह अन्दर दाखिल हो गये; पर हरिधन अन्दर न जा सका। इधर एक महीने से उसके साथ यहाँ जो बरताव हो रहा था और विशेषकर कल उसे जैसी फटकार सुननी पड़ी थी, वह उसके पाँव में बेड़ियाँ-सी डाले हुए था। कल उसकी सास ही ने तो कहा था , मेरा दी तुमसे भर गया, मैं तुम्हारी जिन्दगी का ठेका लिये बैठी हूँ क्या? और सबसे बढ़कर अपनी स्त्री की निष्ठुरता ने उसके हृदय के टुकड़े कर दिये थे। वह बैठी यह फटकार सुनती रही, पर एक बार भी तो उसके मुँह से न निकला, अम्माँ, तुम क्यों इनका अपमान कर रही हो? बैठी गट-गट सुनती रही। शायद मेरी दुर्गति पर खुश हो रही थी। इस घर में वह कैसे जाय? क्या फिर वही गालियाँ खाने, वही फटकार सुनने के लिए? और आज इस घर में जीवन के दस साल गुज़र जाने पर यह हाल हो रहा हैं। मैं किसी से कम काम नहीं कहता हूँ? दोनों साले मीठी नींद सोते रहते हैं और मैं बैलों को सानी-पानी देता हूँ, छाँटी काटता हूँ। वहाँ सब लोग पल-पल पर चिलम पीते है, मैं आँखे बन्द किये अपने काम में लगा रहता हूँ। संध्या समय पर घरवाले गाने-बजाने चले जाते हैं। मैं घड़ी रात तक गायें-भैसे दुहता हूँ। उसका यह पुरस्कार मिल रहा हैं कि कोई खाने को भी नहीं पूछता। उलटे और गालियाँ मिलती हैं।
उसकी स्त्री घर से डोल लेकर निकली और बोली - ज़रा इसे कुएँ से खींच लो, एक बूँद पानी नहीं हैं।
हरिधन ने डोल लिया औऱ कुएँ से पानी भर लाया। उसे जोर से भूख लगी हुई था। समझा, अब खाने को बुलाने आयेगी, मगर स्त्री डोल लेकर अन्दर गयी तो वहीं की हो रही। हरिधन थका-माँदा, क्षुधा से व्याकुल पड़ा सो रहा।
सहसा उसकी स्त्री गुमानी ने आकर उसे जगाया।
हरिधन ने पड़े-पड़े ही कहा - क्या है? क्या पड़ा भी न रहने देगी या और पानी चाहिए?
गुमानी कटु स्वर में बोली- गुर्राते क्यो हो, खाने को बुलाने आयी हूँ।
हरिधन ने देखा, उसके दोनो साले और बड़े साले के दोनो लड़के भोजन किये चले जा रहे है। उसकी देह में आग लग गयी। मेरी अब यह नौबत पहुँच गयी कि इन लोगों के साथ बैठ कर खा भी नही सकता। मैं इनकी जूठी थाली चाटनेवाला हूँ। मैं इनका कुत्ता हूँ, जिसे खाने के बाद टुकड़ा रोटी डाल दी जाती है। यही घर हैं, जहाँ आज से दस साल पहले उसका कितना आदर-सत्कार होता था। साले गुलाम बने रहते थे । सास मुँह जोहती रहती थी। स्त्री पूजा करती थी। तब उसके पास रुपये थे, ज़ायदाद थी। अब वह दरिद्र हैं। उसकी सारी ज़ायदाद को इन्हीं लोगो ने कूड़ा कर दिया। अब रोटियों के भी लाले हैं। उसके जी में एक ज्वाला-सी उठी कि इसी वक़्त अन्दर जाकर सास को और साली को भिगो-भिगोकर लगाए, पर जब्त करके रह गया। पड़े-पड़े बोला- मुझे भूख नही हैं। आज न खाऊँगा।
गुमानी ने कहा - न खाओगे मेरी बला से, हाँ नही तो! खाओगे, तुम्हारे ही पेट में जायेगा, कुछ मेरे पेट में थोड़े ही जायेगा।
हरिधन का क्रोध आँसू बन गया। यह मेरी स्त्री हैं, जिसके लिए मैने अपना सर्वस्व मिट्टी में मिला दिया। मुझे उल्लू बनाकर यह सब मुझे अब निकाल देना चाहते हैं। वह अब कहाँ जाये! क्या करें!
उसकी सास आकर बोलीं- चलकर खा क्यों नही लेते जी, रूठते किस पर हो। यहाँ तुम्हारे नखरे सहने का किसी में बूता नहीं हैं। जो देते हैं, वह मत देना और क्या करोगे! तुमसे बेटी ब्याही हैं, कुछ तुम्हारी जिन्दगी का ठेका नहीं लिया हैं।
हरिधन ने मर्माहत होकर कहा - हाँ अम्माँ, मेरी भूल थी कि मैं यही समझ रहा था। अब मेरे पास क्या हैं कि तुम मेरी जिन्दगी का ठेका लोगी? जब मेरे पास धन भी था, तब सब कुछ आता था। अब दरिद्र हूँ, तुम क्यों बात पूछोगी?
बूढ़ी सास भी मुँह फुलाकर भीतर चली गयी।

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